चुनार किले की स्थापना उज्जैन के राजा महाराजा विक्रमादित्य ने अपने भाई राजा भर्तृहरि के प्रवास के सम्मान में की थी । ऐसा माना जाता है कि राजा भर्तृहरि ने अपना शरीर त्याग दिया और इस किले में महासमाधि ले ली, एक सेवक शिष्य अभी भी इस जगह की देखभाल कर रहा है और राजा को हर रोज दीपम धूपम प्रदान करता है (8 नवंबर 2011 तक)। आल्हा खंड के अनुसार 1029 ई. में राजा सहदेव ने इस किले को अपनी राजधानी बनाया और विंध्य पर्वत की एक गुफा में नैना योगिनी की मूर्ति स्थापित कर इसका नाम नैनागढ़ रखा। राजा सहदेव ने 52 अन्य राजाओं पर विजय की याद में किले के अंदर 52 खंभों पर आधारित पत्थर की छतरी बनवाई थी जो आज भी सुरक्षित है। उनकी एक बहादुर बेटी थी जिसका विवाह महोबा के तत्कालीन राजा आल्हा से हुआ था, जिसका विवाह स्थल आज भी सोनवा मंडप के नाम से सुरक्षित है। इसके अलावा किले से जुड़ी कुछ अन्य कहानियाँ भी हैं जैसे कि मैग्ना-देवगढ़, रतन देव की बुर्ज (टॉवर) और राजा पिथौरा ने इसे पत्थरगढ़ भी कहा था। जुलाई 1537 के मध्य में हुमायूँ आगरा छोड़कर 5 महीने बाद चुनार पहुँचे और 3 महीने तक चुनार किले की घेराबंदी की। हुमायूँ ने बाद में बंगाल के बदले शेरशाह सूरी को चुनार और जौनपुर की पेशकश की । 1525 ई. में मुगल वंश के संस्थापक बाबर के यहाँ रहने के कारण इस किले का बहुत महत्व है। बाद में शेरशाह सूरी ने इब्राहिम लोदी के गवर्नर ताज खान सारंग-खानी की विधवा पत्नी से विवाह करके किले पर कब्ज़ा कर लिया। 1574 ई. में अकबर महान ने इस किले पर कब्ज़ा कर लिया और तब से लेकर 1772 ई. तक यह मुगल शासन के अधीन रहा।






